“है भव्य भारत की हमारी मातृभूमि हरी-भरी।
हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा और लिपि है नागरी।।”
पिछले एक हजार वर्षों से हिन्दी भाषा अनवरत रूप से भारतीय जनमानस को अपने नाना रूपों, विधाओं और संस्कारों से जीवनी शक्ति प्रदान करती हुई चली आ रही है। प्राचीनतम भाषा संस्कृत से पाली, प्राकृत और अपभ्रंश आदि पड़ावों को पार करती हुई हिन्दी आज एक भव्य प्रासाद के रुप में हमारे सामने ही नहीं बल्कि हमारे भीतर तक समाहित होकर विराजमान है।
भाषा सिर्फ विचारों का आदान-प्रदान ही नहीं करती है,
बल्कि अपने विशाल और सूक्ष्म अनुभवों के कारण सहिष्णुता, उदारता तथा राष्ट्रीय चेतना की संवाहिका होती है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न दिशा-परिमाण-वेग वाली अनेक नदियाँ अपने-अपने अपवहन क्षेत्रों को सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक रुप से प्रभावित करती हैं, उसी प्रकार हिन्दी भाषा ने भी भारतीयता को धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रुप से सौष्ठव प्रदान करने का कार्य किया है।
आज संस्कृत को छोड़कर किसी भी भाषा का साहित्य हिन्दी की समानता नहीं कर सकता। जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है,
हृदय की ऐसी कोई भाव-भूमि नहीं है और विचारों की ऐसी कोई ऊँचाई और गहराई नहीं है, जहाँ हिन्दी की प्रतिष्ठा न हो।
यद्यपि पिछली शताब्दियों में हिन्दी भाषा और साहित्य की उपेक्षा विदेशियों के द्वारा प्रत्यक्ष और प्रच्छन्न रुप से की जाती रही है, किन्तु फिर भी अपने सृजित संस्कारों के कारण हिन्दी भाषा और साहित्य किञ्चित मात्र भी डगमगाया नहीं है।
आज हिन्दी हमारी मातृभाषा है। ज्ञान का सबसे सशक्त माध्यम मातृभाषा ही होती है। किसी भी संस्कृति को सांगोपांग समझने के लिए उसी भाषा की आवश्यकता होती है। किसी भी भाषा में अनेक संस्कार ओतप्रोत होते हैं। मातृभाषा के ज्ञान के अभाव में जीवन की धारणाएँ आर्थिक व्यापार के समान अनाकर्षक और जीवन के भावनात्मक संगीत से रहित हो जाती हैं। फलस्वरूप जीवन की यात्रा एक मरुस्थल बनकर रह जाती है।
आज कुछ चमत्कारी आवरणों ने हमारी भाषा को ढक दिया है, जिससे हम नैतिक रुप से प्रगति नहीं कर पा रहे हैं। यही नैतिकता का राहित्य हमको सामाजिक वैमनस्यता और पारिवारिक विघटन के रुप में दिखाई दे रहा है।
आज के पाश्चात्य भौतिकवाद ने हमारी भाषा और तन्निहित साहित्य पर एक ऐसा ध्वनि-रहित आक्रमण किया है, जिससे कि भारतीय युवक अपनी संस्कृति से बौद्धिक तथा भावुक रुप से पृथक् होते जा रहे हैं। अतएव समन्वय तथा सामंजस्यपूर्ण
संस्कारों के प्रति शत्रुतापूर्ण, आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति सन्देहवाही और धार्मिक अनुशासन के प्रति असहिष्णु होना अब प्रचलन में आ गया है।
यदि हम पहले जैसी समादर और सौहार्द्रपूर्ण पारिवारिक और सामाजिक स्थिति की आशा करते हैं, तो हमें अपनी मातृभाषा और अपने साहित्य को आबालवृद्ध अपनाना होगा। हमारे अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए यही एक मात्र आशा की किरण है।
आज हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) के अवसर पर सिर्फ कार्यक्रम का आयोजन ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि आज यह प्रण करना है कि हम लोग प्रतिदिन 10-15 मिनट के लिए ही सही,
परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठकर हिन्दी की कहानी या कविता की चर्चा अवश्य करेंगे। माना, कि बड़े-बड़े अभियान असफल हो जाते हैं लेकिन हमारी यह उक्त प्रण की योजना शीघ्र ही सकारात्मक परिणाम देती हुई दिखाई देगी। यही अपने पूर्वजों का भाषा-निहित प्रताप है।
हिन्दी की इन्ही विशेषताओं के कारण 14 सितम्बर 1949 को संवैधानिक रुप से हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था। आगे कुछ दायित्व अपना भी है।
“निजभाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।
बिनु निजभाषा ज्ञान के मिटै न हिय को सूल।।”